जन्म | 23 जनवरी 1897 कटक, बंगाल प्रेसीडेंसी का ओड़िसा डिवीजन, ब्रिटिश भारत |
मृत्यु | 18 अगस्त 1945 |
माता-पिता | श्री जानकी नाथ बोस और प्रभावती बोस (दत्त |
बच्चे | अनीता बोस फाक |
पत्नी | श्रीमति एमिली शेंकल |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
जाती धर्म | बंगाली लोग, हिन्दू |
शिक्षा | 1919 बी०ए० (ओनर्स), 1920 आई.सी.एस.पारीक्षा उत्तीर्ण |
शिक्षा प्राप्ति | कलकत्ता विश्वविद्यालय |
पद | अध्यक्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1938) |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1921-1940), फॉरवर्ड ब्लॉक (1939- 1940) |
अन्य संबंधी | श्री शरदचंद्र बोस भाई और श्री शिशिर कुमार बोस भतीजा |
प्रश्न: तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा यह नारा किसने दिया?
उत्तर: नेताजी सुभाष चंद्र बोस
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जीवनी: सुभाष चन्द्र बोस जिन्हें सभी लोग नेताजी के नाम से भी जानते है, भारत के स्वतंत्र होने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। द्वितीय विश्वयुद्ध (second world war) अंग्रेजों के खिलाफ जापान की सहायता से भारतीय राष्ट्रीय सेना का निर्माण किया था। जो “आजाद हिन्द फ़ौज” के नाम से जानी जाती है। सुभाष चंद्र बोस, स्वामी विवेकानंद की कही हुई बातों पे अमल करते थे।
सुभाष चन्द्र बोस का कथन: “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दूंगा”
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का प्रसिद्ध नारा था। जिसे पूरा भारत जानता है। कुछ लोगों का मानना था की जब नेताजी ने जापान और जर्मनी से सहयोग लेने का प्रयत्न किया तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मारने के लिए 1914 में अपने गुप्तचर भेजे थे।
1920 के अंत में बोस भारतीय युवा कांग्रेस के बड़े नेता माने गए और सन् 1938 और 1939 को वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1939 में महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के चलते हुए विवाद के कारण अपने पद को छोड़ना पड़ा और 1940 में भारत छोड़ने से पहले ही उन्हें ब्रिटिश ने अपने गिरफ्त में कर लिया था। अप्रैल 1941 को बोस को जर्मनी ले जाया गया।
05 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने “सुप्रीम कमांडर” बन कर सेना को संबोधित करते हुए “दिल्ली चलो” का नारा लगाने वाले सुभाष चन्द्र बोस ही थे। जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश और कॉमनवेल्थ सेना से बर्मा, इम्फाल, और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लगाया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व की बात करें तो 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज के सर्वोच्च सेनापती के पद से स्वतंत्र भारत की अस्थिर सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्छेको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थिर सरकार को सौंपा और सुभाष उन द्वीपों में गए और उनको नया नाम दिया।
कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध माना गया और इस युद्ध में जापानी सेना की हार हुई।
जापान में 18 अगस्त को उनका जन्म दिन बड़े ही धूमधाम से आज भी मनाया जाता है और वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का कहना है कि सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु सन् 1945 में हुई ही नहीं थी। वे रूस में नजरबंद थे और यदि ये बात गलत है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से संबंधित दस्तावेज अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किया? इस बात को लेकर आज भी विवाद है। कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य को लेकर खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग को जनहित याचिका पर सुनवाई के लिए स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया था।
23 जनवरी 1897 को कटक (ओडिशा) शहर में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म हुआ। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस और माँ श्रीमती प्रभावती थे।
सुभाष जी के पिता जी शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे फिर उन्होंने निजी अभ्यास शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। उन्हें रायबहादुर का खिताब भी अंग्रेजन द्वारा मिला।
सुभाष चन्द्र के नानाजी का नाम गंगा नारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन कायस्थ परिवार माना जाता था। सुभाष चन्द्र बोस को मिला कर वे 6 बेटियां और 8 बेटे यानी कुल 14 संतानें थी। सुभाष चन्द्र जी 9 स्थान पर थे। कहा जाता है कि सुभाष चन्द्र जी को अपने भाई शरद चन्द्र से सबसे अधिक लगाव था। शरद बाबु प्रभावती जी और जानकी नाथ के दूसरे बेटे थे। शरद बाबु की पत्नी का नाम विभावती था।
सुभाष चन्द्र बोस की शिक्षा और आई.सी.एस. का सफर: प्राइमरी शिक्षा कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल से पूरी की और 1909 में उन्होंने रावेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लिया। उन पर उनके प्रिंसिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा। वह विवेकानंद जी के साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था।
सन् 1915 में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा बीमार होने पर भी दूसरी श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में बी० ए० (ऑनर्स) के छात्र थे। प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया। सुभाष ने छात्रों का साथ दिया जिसकी वजह से उन्हें एक साल के लिए निकाल दिया और परीक्षा नहीं देने दी। उन्होंने बंगाली रेजिमेंट में भर्ती के लिए परीक्षा दी मगर आँखों के खराब होने की वजह से उन्हें मना कर दिया गया। स्कॉटिश चर्च में कॉलेज में उन्होंने प्रवेश किया लेकिन मन नहीं माना क्योंकि मन केवल सेना में ही जाने का था।
जब उन्हें लगा की उनके पास कुछ समय शेष बचता है तो उन्होंने टेटोरियल नामक आर्मी में परीक्षा दी और उन्हें विलियम सेनालय में प्रवेश मिला और फिर बी०ए० (आनर्स) में खूब मेहनत की और सन् 1919 में एक बी० ए० (आनर्स) की परीक्षा प्रथम आकर पास की और साथ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका स्थान दूसरा था। उनकी अब उम्र इतनी हो चुकी थी की वे केवल एक ही बार प्रयास करने पर ही आईसीएस बना जा सकता था। उनके पिता जी की ख्वाहिश थी की वह आईसीएस बने और फिर क्या था सुभाष चन्द्र जी ने पिता से एक दिन का समय लिया। केवल ये सोचने के लिए की आईसीएस की परीक्षा देंगे या नही। इस चक्कर में वे पूरी रात सोये भी नहीं थे। अगले दिन उन्होंने सोच लिया की वे परीक्षा देंगे।
वे 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गए। किसी वजह से उन्हें किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं मिला फिर क्या था उन्होंने अलग रास्ता निकाला। सुभाष जी ने किड्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक ज्ञान की ट्राईपास (ऑनर्स) की परीक्षा के लिए दाखिला लिया इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी और फिर ट्राईपास (ऑनर्स) की आड़ में आईसीएस की तैयारी की और 1920 में उन्होंने वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त कर परीक्षा उत्तीर्ण की।
स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों और ज्ञान ने उन्हें अपने भाई शरत चन्द्र से बात करने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने एक पत्र अपने बड़े भाई शरत चन्द्र को लिखा जिसमें उन्होंने पूछा की मैं आईसीएस बन कर अंग्रेजों की सेवा नहीं कर सकता। फिर उन्होंने 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई० एस० मांटेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र दिया। एक पत्र देशबंधु चित्तरंजन दस को लिखा। उनके इस निर्णय में उनकी माता ने उनका साथ दिया, उनकी माता को उन पर गर्व था। फिर सन् 1921 में ट्राईपास (ऑनर्स) की डिग्री लेकर अपने देश वापस लौटे।
भारत की आजादी में सुभाष चन्द्र जी का योगदान
सुभाष चन्द्र बोस ने ठान ली थी की वे भारत की आजादी के लिए कार्य करेंगे। वे कोलकाता के देशबंधु चित्तरंजन दास से प्रेरित हुए और उनके साथ काम करने के लीये इंग्लैंड से उन्होंने दिबबू को पत्र लिखा और साथ में काम करने के लिए अपनी इच्छा जताई। कहा जाता है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार ही सुभाष जी मुंबई गए और महात्मा गांधी जी से मिले। सुभाष जी, महात्मा गांधी जी से 20 जुलाई 1921 को मिले और गांधी जी के कहने पर सुभाष जी कोलकाता जाकर दास बाबू से मिले।
असहयोग आंदोलन का समय चल रहा था। दासबाबु और सुभाष जी इस आन्दोलन को बंगाल में देख रहे थे। दासबाबु ने सन् 1922 कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने विधानसभा के अन्दर से लड़ा और जीता।
फिर क्या था…
दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए और इस अधिकार से उन्होंने सुभाष चन्द्र को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बना दिया। सुभाष चन्द्र ने सबसे पहले कोलकाता के सभी रास्तों के नाम ही बदल डाले और भारतीय नाम दे दिए। उन्होंने कोलकाता का रंगरूप ही बदल डाला। सुभाष देश के महत्वपूर्ण युवा नेता बन चुके थे। स्वतंत्र भारत के लिए जिन लोगों ने जान दी थी उनके परिवार के लोगों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी। सुभाष जी की पंडित जवाहर लाल नेहरु जी के साथ अच्छी बनती थी। उसी कारण सुभाष जी ने जवाहर लाल जी के साथ कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडेंस लीग शुरू की।
सन् 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया था तब कांग्रेस के लोगों ने उसे काले झंडे दिखाए और कांग्रेस ने आठ लोगों की सदस्यता आयोग बनाया ताकि साइमन कमीशन को उसका जवाब दे सके, सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। उस आयोग में मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष और सुभाष जी सदस्य थे। आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की और और कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। ये बात सन् 1928 में हुआ था, सुभाष चन्द्र जी ने खाकी कपड़े पहन के मोतीलाल जी को सलामी दी थी।
इस अधिवेशन में गांधी जी ने अंग्रेज सरकार से पूर्ण स्वराज की जगह डोमिनियन स्टेट्स मांगे। सुभाष और जवाहर लाल जी तो पूर्ण स्वराज की मांग कर रहे थे, लेकिन गांधी जी उनकी बात से सहमत नहीं थे। आखिर में फैसला ये हुआ की गांधी जी ने अंग्रेज सरकार को 2 साल का वक्त दिया जिसमें डोमिनियन स्टेट्स वापस दे दिया जाए, मगर सुभाष और जवाहर लाल जी को गांधी जी का ये निर्णय अच्छा नहीं लगा और गांधी जी से 2 साल की वजह अंग्रेजी सरकार को 1 साल का वक्त देने को कहा।
निर्णय ये हुआ की अगर 1 साल में अंग्रेज सरकार ने डोमिनियन स्टेट्स नहीं दिए तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। लेकिन अंग्रेज सरकार के कानों के नीचे जूं भी नहीं रेंगा। अंत में आकर सन् 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता का दिन मनाया जाएगा।
कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष बड़ी मात्रा में लोगों के साथ मोर्चा निकाल रहे थे। 26 जनवरी 1931 की बात है ये उनके इस कारनामे से पुलिस ने उन पर लाठियां चलाई और उन्हें घायल कर जेल में भेज दिया। महात्मा गांधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सभी कैदियों को जेल से सुभाष चन्द्र सहित छुड़ा लिया और अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे बहादुर क्रांतिकारी को आजाद करने से मना कर दिया।
गांधी जी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए अंग्रेज सरकार से बात की मगर नरमी के साथ सुभाष जी कभी नहीं चाहते थे कि ऐसा हो उनका कहना था की गांधी जी इस समझौते को तोड़ दे। मगर कहा जाता है कि गांधी जी अपने दिए हुए वचन को कभी नहीं तोड़ते थे। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह व उनके साथ काम करने वालों को फांसी दे दी और सुभाष चन्द्र जी के दिलों दिमाग में आग लगा दी उन्हें गांधी जी और कांग्रेस के तरीके बिलकुल पसंद नहीं आये।
पूरे जीवन में सुभाष चन्द्र जी को करीब 11 बार कारावास हुआ। 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ। गोपीनाथ साहा नाम के एक क्रांतिकारी ने सन् 1925 मे कोलकाता की पुलिस में अधिकारी चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहा, मगर गलती से अर्नेस्ट डे नाम के व्यापारी को मार दिया जिस वजह से गोपीनाथ को फांसी दे दी गयी। इस खबर से सुभाष चन्द्र जी फूट फूट कर रोये और गोपीनाथ का मृत शरीर मांगकर अंतिम संस्कार किया।
सुभाष चन्द्र जी के इस कार्य से अंग्रेजी सरकार ने सोचा की सुभाष चन्द्र कहीं क्रांतिकारियों से मिला हुआ तो नहीं है या फिर क्रांतिकारियों को हमारे लिए भड़काता है। किसी बहाने अंग्रेज सरकार ने सुभाष को गिरफ्तार किया और बिना किसी सबूत के बिना किसी मुकदमे के सुभाष चन्द्र को म्यांमार के मंडल कारागार में बंदी बनाकर डाल दिया। चित्तरंजन दास 05 नवम्बर 1925 को कोलकाता में चल बसे। ये खबर रेडियो में सुभाष जी ने सुन ली थी। कुछ दिन में सुभाष जी की तबियत ख़राब होने लगी थी, उन्हें तपेदिक हो गया था। लेकिन अंग्रेजी सरकार ने उन्हें रिहा फिर भी नहीं किया था।
सरकार की शर्त थी की उन्हें रिहा जभी किया जायेगा जब वे इलाज के लिए यूरोप चले जाए, मगर सुभाष चन्द्र जी ने ये शर्त भी ठुकरा दी क्योंकि सरकार ने ये बात साफ नहीं की थी की सुभाष चन्द्र जी कब भारत वापस आ सकेंगे। अब अंग्रेजी सरकार दुविधा में पड़ गई थी क्योंकि सरकार ये भी नहीं चाहती थी की सुभाष चन्द्र जी कारावास में ही खत्म हो जाए। इसलिए सरकार के रिहा करने पर सुभाष जी ने अपना इलाज डलहौजी में करवाया। सन् 1930 में सुभाष कारावास में ही थे और चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुन लिया गया था। जिस कारण उन्हें रिहा कर दिया गया। सन् 1932 में सुभाष जी को फिर कारावास हुआ और उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया, अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर खराब हो गयी, चिकित्सकों की सलाह पर वे यूरोप चले गए।
यूरोप में रह कर देश भक्ति: सन् 1933-1936 सुभाष जी यूरोप में ही रहे। वहां वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वादा किया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे मित्र बन गए। उन दिनों जवाहर लाल जी की पत्नी कमला नेहरू का आस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष जी ने जवाहर जी को वहां जाकर हिम्मत दी। बाद में विट्ठल भाई पटेल से भी मिले।
विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मंत्रण की जिसे पटेल व बोस की विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। उस वार्तालाप में उन दोनों ने गांधी जी की घोर निंदा की, यहाँ तक की विठ्ठल भाई पटेल के बीमार होने पर सुभाष जी ने उनकी सेवा भी की मगर विठ्ठल भाई पटेल जी का निधन हो गया। विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी सारी संपत्ति सुभाष जी के नाम कर दी और सरदार भाई पटेल जो विठ्ठल भाई पटेल छोटे भाई थे उन्होंने इस वसीयत को मना कर दिया और मुकदमा कर दिया। मुकदमा सरदार भाई पटेल जीत गये और सारी संपत्ति गांधी जी के हरिजन समाज को सौंप दी।
सन् 1934 में सुभाष जी के पिता जी की मृत्यु हो गयी। जब उनके पिता जी मृत्युशय्या पर थे तब वे कराची से हवाई जहाज से कोलकाता लौट आये, मगर देर हो चुकी थी। कोलकाता आये ही थे कि उन्हें अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और करावास में डाल दिया और बाद में यूरोप वापस भेज दिया।
👉 क्या आपको पता है कि प्रेम विवाह हुआ था सुभाष चंद्र जी का?
ऑस्ट्रिया में जब वे अपना इलाज करवा रहे थे तब उन्हें अपनी पुस्तक लिखने के लिए अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की जरूरत पड़ी। उनकी मुलाकात अपने मित्र द्वारा एक महिला से हुई जिनका नाम एमिली शेंकल था। एमिली के पिता जी पशुओं के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। ये बात सन् 1934 की थी। एमिली और सुभाष जी एक दूसरे की और आकर्षित हुए और प्रेम करने लगे। उन्होंने हिन्दू रीति रिवाज से सन् 1942 में विवाह कर लिया और उनकी एक पुत्री हुई। सुभाष जी ने जब वो बच्ची चार सप्ताह की थी बस तभी देखा था और फिर अगस्त सन् 1945 में ताद्वान में उनकी विमान दुर्घटना हो गयी और उनकी मृत्यु हो गयी जब उनकी पुत्री अनीता पौने तीन साल की थी।
अनीता अभी जीवित है और अपने पिता के परिवार जानो से मिलने के लिए भारत आती रहती हैं।
सन् 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। कांग्रेस के 51वां अधिवेशन था इसलिए उनका स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे गए रथ से किया गया। इस अधिवेशन में उनका भाषण बहुत ही प्रभाव शाली था। सन् 1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष जी ने चीनी जनता की सहायता के लिए डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस के साथ चिकित्सा दल भेजने के लिए निर्णय लिया। भारत की स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग लिया। कई लोगों का कहना था कि सुभाष जी जापान की कठपुतली और फासिस्ट कहते थे। मगर ये सब बातें गलती थी।
👉 गांधी जी की जिद की वजह से कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा
सन् 1938 में गांधी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना था लेकिन सुभाष जी की कार्य पद्धति उन्हें पसंद नहीं आयी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष जी ने सोचा की क्यों न इंग्लैण्ड की इस कठिनाई का फायदा उठा कर भारत का स्वतंत्रता संग्राम में तेजी लाइ जाए, परन्तु गांधी जी इस से सहमत नहीं हुए।
सन् 1939 में जब दुबारा अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष जी चाहते थे की कोई ऐसा इंसान अध्यक्ष पद पर बैठे जो किसी बात पर दबाव न बर्दाश्त करें और मानव जाति का कल्याण करें। जब ऐसा व्यक्ति सामने नहीं आया तो उन्होंने दुबारा अध्यक्ष बनने का प्रताव रखा तो गांधी जी ने मना कर दिया। दुबारा अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सीतारमैया को चुना, मगर कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गांधी जी को खत लिखा और कहा की अध्यक्ष पद के लिए सुभाष जी ही सही है।
प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाथ जैसे महान वैज्ञानिक भी सुभाष की फिर अध्यक्ष के रूप मे देखना चाहते थे मगर महात्मा गांधी जी ने किसी की भी बात नहीं सुनी और कोई समझौता नहीं किया। जब महात्मा गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया का साथ दिया और उधर सुभाष जी ने भी चुनाव में अपना नाम दे दिया। चुनाव में सुभाष जी को 1580 मत और पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत प्राप्त हुए और सुभाष जी जीत गए। मगर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया हार को अपनी हार बताया और अपने कांग्रेस के साथियों से कहा की अगर वे सुभाष जी के तौर तरीके से सहमत नहीं है तो वो कांग्रेस से हट सकते है। इसके बाद कांग्रेस में 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने और शरदबाबू सुभाष जी के साथ रहे।
सन् 1939 का वार्षिक अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाष जी को तेज बुखार हो गया और वो इतने बीमार थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाया गया। गांधी जी और उनके साथी इस अधिवेशन में नहीं आये और इस अधिवेशन के बाद सुभाष जी ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की मगर गांधी जी ने उनकी एक न सुनी। स्थिति ऐसी थी की वे कुछ नहीं कर सकते थे। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष जी ने इस्तीफा दे दिया।
16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरद बाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाडी में कोलकाता से दूर गोमो तक पहुँचाया। गोमो रेलवे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पञ्च गए। उन्हें पेशावर में फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, कीर्ति किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम के साथ सुभाष जी अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की और निकल गए। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूंगे-बहरे चाचा जी बन गए। पहाड़ियों में पैदल चल कर सफर पूरा किया।
सुभाष जी काबुल में उत्तमचंद मल्होत्रा एक भारतीय व्यापारी के घर दो महिने रहे। वहां उन्होंने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें सफलता नहीं मिली तब उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावास में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इतालियन के दूतावास ने उनकी मदद की। अंत में आयरलैंड मैजेंटा नामक इटालियन व्यक्ति के साथ सुभाष काबुल से निकल कर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी राजधानी बर्लिन पहुचे।
👉 सुभाष बर्लिन में कई नेताओं के साथ मिले उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संघठन और आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की।
👉 इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से भी मशहूर हो गए। जर्मन के एक मंत्री एडम फॉन सुभाष जी के अच्छे मित्र बन गए।
👉 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडोल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाष की मदद को कोई पक्का वादा नहीं किया।
हिटलर ने कई साल पहले माईन काम्फ नामक आत्मचरित्र लिखा था।
इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाष ने हिटलर से अपनी नाराजगी दिखाई। हिटलर ने फिर माफ़ी मांगी और माईन काम्फ़ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वादा किया। अंत में सुभाष को पता लगा की हिटलर और जर्मनी से किये वादे झुटे निकले इसलिए 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पर्वी एशिया की और निकल दिए। वह जर्मनी पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी फिर वहां दोनों ने समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुचे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एक मात्र अदला-बदली हुई थी, वो जापनी पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के बंदरगाह तक पहुँचाकर आई।
जापान द्वितीय विश्वयुद्ध में हार गया, सुभाष जी को नया रास्ता निकलना जरूरी था। उन्होंने रूस से मदद मांगने की सोच रखी और 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिए। 23 अगस्त 1945 को रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक वीमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को जापान के ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटीत हो गए।
विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल और कुछ अन्य लोग मारे गए। नेताजी गंभीर रूप से जल गए थे। वहां जापान में अस्पताल में ले जाया गया और जहाँ उन्हें मृत घोषित कर दिया गया और उनका अंतिम संस्कार भी वही कर दिया गया। सितम्बर में उनकी अस्थियों को इकठ्ठा करके जापान की राजधानी टोकियो के रेंकोजी मंदिर में रख दी गयी।
भारतीय लेखागार ने सुभाष जी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 09:00 बजे हुई थी।
आज तक ये रहस्य ही बना हुआ है कि आखिर सुभाष जी की मृत्यु कैसे हुई थी (Subhash Chandra Bose Death) और अभी 2018 से करीब एक दो साल पहले न्यूज रिपोर्ट द्वारा ये बात सामने आई थी कि सुभाष जी कुछ साल बाद भी जिन्दा थे और वेश बदल कर जी रहे थे। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे किये गए लेकिन कोई साबुत सामने नहीं आया।
सुभाष चंद्र बोस से संबंधित कुछ ऐसे प्रश्न है जिनके जवाब बहुत लोग छोड़ते रह जाते है, लेकिन उन्हें मिल नहीं पाते। इसलिए मैंने कुछ प्रश्न व उत्तर सुभाष चंद्र बोस जी से संबंधित नीचे लिख दिए हैं। कृपया करके उन्हें पढ़ें और अन्य किसी प्रश्न के लिए आप मुझे कमेंट के माध्यम से बताएं कि आपको उनके बारे में क्या जानना था और क्या चीज है जो आपको नहीं पता।
18 अगस्त 1945 को सुभाष चंद्र बोस जी ने देह त्याग कर दिया था। सुभाष चंद्र बोस की मौत एक विमान हादसे के कारण हुई थी। भारत सरकार की इस बात से सुभाष चंद्र बोस का परिवार काफी नाराज था और इसे एक गैर जिम्मेदाराना हरकत कहा गया था।
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को हुई। मृत्यु का कारण विमान दुर्घटना था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म कटक में हुआ था।
सुभाष चंद्र बोस की केवल एक पुत्री थी।
सुभाष चंद्र बोस की पत्नी का नाम एमिली शेंकल था।
18 अगस्त 1945 के बाद सुभाष चंद्र बोस का जीवन और मृत्यु आज तक एक रहस्य में बना हुआ है जो कि आज तक नहीं सुलझाए जा सकी है।
18 अगस्त 1945
23 जनवरी 1897
जानकीनाथ बोस
सुभाष चंद्र बोस के माता पिता का नाम क्या था?
सुभाष चंद्र बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था।
जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे।
124वां जन्मदिन है।
सुभाष चंद्र बोस ने देश के लिए बहुत कुछ किया है। स्वतंत्रता समय में भी उन्होंने अपना सर्वोत्तम योगदान दिया था।
स्वतंत्रता आंदोलन में सुभाष चंद्र बोस की भूमिका एक क्रांतिकारी के रूप में थी और उन का योगदान हमारे लिए बहुत ही मूल्यवान है।
9 फ़रवरी 1943 को सुभाष चंद्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंचे और पहुंचते ही जून 1943 में टोक्यो रेडियो से घोषणा की अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यवसाय की भी अपना साम्राज्य छोड़ देंगे, हमें भारत के भीतर व बाहर सफलता के लिए खुद ही संघर्ष करना होगा।
सन् 1993 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस इंदापुर प्राकृतिक आजाद हिंद सरकार की स्थापना की।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वर्ष 1942 में भारत को अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्रता दिलाने के लिए आजाद हिंद फौज या इंडियन नेशनल आर्मी आई एन ए (I. N. A.) नामक सेना का संगठन किया गया था। इस फौज का गठन जापान में हुआ था, इसकी स्थापना भारत के एक क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस ने टोक्यो में की।
21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई थी जिसे जापान ने 23 अक्टूबर 1943 को मान्यता दी थी।
1915 में भी गठित हो चुकी थी आजाद हिंद की सरकार। इससे पहले अक्टूबर 1915 में अफगानिस्तान में भारत की पहली स्वाधीन सरकार “आजाद हिन्द सरकार” का गठन हुआ था। राजा महेन्द्र प्रताप इसके राष्ट्रपति थे और मोहम्मद बरकतउल्ला प्रधानमंत्री।
यह अक्ष शक्तियों की सहायता से भारत को स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा बनाया गया था। जिसका नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस कर रहे थे। जर्मनी से एक “यू बॉट” से दक्षिण एशिया आए, फिर वहाँ से जापान गये। सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के दावे के बाद ही इसकी सेना, आज़ाद हिन्द फ़ौज को पराजय मिली।
40 हजार भारतीय युद्ध बंदियों में से इसमें 12 हजार युद्धबंदी शामिल थे जो मलाया अभियान में पकड़े गये थे या जिसने सिंगापुर में आत्मसमर्पण किया था। इस सेना का नेतृत्व मोहन सिंह के हाथ में था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना के साथ ही एक महिला बटालियन भी गठित की थी, जिसमें उन्होंने रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया था और उसकी कैप्टन लक्ष्मी सहगल बनीं थी।
सुभाष चंद्र बोस
Mohan Singh
Netaji Subhas Chandra Bose and Indian Freedom Struggle (Set in 2 Vols.)
सुभाष चंद्र बोस पर कविता
है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं अक्सर दुनिया के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा , तोते-सा बेदाग़ गया। जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे, ये धूमिल अभी कहानी है हमने तो उसकी नयी कथा, आज़ाद फ़ौज से जानी है साभार - कविताकोश
प्रिय देशवासियों सुभाष चन्द्र बोस के बारे में पूरी दुनिया अच्छे से जानती है और उनके द्वारा बोली गयी कुछ लाइंस नीचे लिखी गयी है। आपको सुभाष चन्द्र बोस की जानकारी भी इस लेख में मिल जाएगी। स्वतंत्रता की लड़ाई में सुभाष चन्द्र जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है और उनकी सोच जिसने उन्हे सबसे अलग बनाया है। भारत की आजादी में सुभाष चंद्र बोस ने अपने साईंकोन को बहुत प्रेरित किया और उनके दिशा निर्देश पर लोगों ने अपने कदम रखे।
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा !’ यह कहना था भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी “नेताजी सुभाष चन्द्र बोस” का।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की और देश में राज्य कर रहे अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध का ऐलान किया, जिसने भारत को स्वतंत्र कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके द्वारा दिया गया “जय हिन्द जय भारत का नारा” भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।
“एक सच्चे सैनिक को सैन्य प्रशिक्षण और आध्यात्मिक प्रशिक्षण दोनों की जरूरत होती है।”
“राष्ट्रवाद मानव जाति के उच्चतम आदर्शों ; सत्यम् , शिवम्, सुन्दरम् से प्रेरित है।”
“मेरे पास एक लक्ष्य है जिसे मुझे हर हाल में पूरा करना हैं। मेरा जन्म उसी के लिए हुआ है ! मुझे नैतिक विचारों की धारा में नहीं बहना है।”
“अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना सबसे बड़ा अपराध है।”
“अपने पूरे जीवन में मैंने कभी खुशामद नहीं की है। दूसरों को अच्छी लगने वाली बातें करना मुझे नहीं आता।”
“जीवन की अनिश्चितता से मैं जरा भी नहीं घबराता।”
“आज हमारे पास एक इच्छा होनी चाहिए ‘मरने की इच्छा’, क्योंकि मेरा देश जी सके – एक शहीद की मौत का सामना करने की शक्ति, क्योंकि स्वतंत्रता का मार्ग शहीद के खून से प्रशस्त हो सके।”
“जब आज़ाद हिंद फौज खड़ी होती हैं तो वो ग्रेनाइट की दीवार की तरह होती हैं ; जब आज़ाद हिंद फौज मार्च करती है तो स्टीमर की तरह होती हैं।”
“भविष्य अब भी मेरे हाथ में है।”
“राजनीतिक सौदेबाजी का एक रहस्य यह भी है जो आप वास्तव में हैं उससे अधिक मजबूत दिखते हैं।”
“अजेय (कभी न मरने वाले) हैं वो सैनिक जो हमेशा अपने राष्ट्र के प्रति वफादार रहते हैं, जो हमेशा अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं।” – सुभाष चंद्र बोस के विचार
“मैंने अपने अनुभवों से सीखा है ; जब भी जीवन भटकता हैं, कोई न कोई किरण उबार लेती है और जीवन से दूर भटकने नहीं देती।” – सुभाष चंद्र बोस के नारे
“इतिहास गवाह है की कोई भी वास्तविक परिवर्तन चर्चाओं से कभी नहीं हुआ।” – Subhash Chandra Bose Slogan in Hindi
“एक व्यक्ति एक विचार के लिए मर सकता है, लेकिन वह विचार उसकी मृत्यु के बाद, एक हजार जीवन में खुद को अवतार लेगा।”
“यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का भुगतान अपने रक्त से करें। आपके बलिदान और परिश्रम के माध्यम से हम जो स्वतंत्रता जीतेंगे, हम अपनी शक्ति के साथ संरक्षित करने में सक्षम होंगे।”
“अच्छे चरित्र निर्माण करना ही छात्रों का मुख्य कर्तव्य होना चाहियें।”
“मेरी सारी की सारी भावनाएं मृतप्राय हो चुकी हैं और एक भयानक कठोरता मुझे कसती जा रही है।”
“माँ का प्यार स्वार्थ रहित और होता सबसे गहरा होता है ! इसको किसी भी प्रकार नापा नहीं जा सकता।”
“हमारा कार्य केवल कर्म करना हैं ! कर्म ही हमारा कर्तव्य है ! फल देने वाला स्वामी ऊपर वाला है।”
“संघर्ष ने मुझे मनुष्य बनाया, मुझमे आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ ,जो पहले मुझमे नहीं था।”
“जीवन में प्रगति का आशय यह है की शंका संदेह उठते रहें, और उनके समाधान के प्रयास का क्रम चलता रहे।”
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– Biography of Subhash Chandra Bose in Hindi
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सराहनीय प्रयास....
Very nice