आचार्य चाणक्य एक महान विद्वान् थे और उन्होंने कई ऐसी बातें बताई हैं जो आम लोगो की जिंदगी को पूरा बदल कर रख देंगी और यकीन मानिये चाणक्य की नीति और चाणक्य के अनमोल विचार हम सभी की जिंदगी में बहुत कुछ अच्छा बदलाव ला सकते हैं.
यदि आप एक व्यापारी या फिर पेशेवर हैं या फिर कहीं नौकरी करते हैं और हो सकता है की शायद आप अभी एक विद्यार्थी हो तो में आपको बता दूँ की HindiParichay.com पर आपको आचार्य चाणक्य की नीति और आचार्य चाणक्य की कही अचूक बातें हैं जो काफी कुछ सिखाती है.
तो दोस्तों आगे पढते हैं| यकीन मानिये ये चाणक्य नीति आप की जिंदगी बदल देगी.
चाणक्य की नीति को अपने जीवन में उतारने वाला व्यक्ति चाहे कितना भी कमजोर क्यों न हो अपने आप को बुरे समय से बचा ही लेता है और चाणक्य की बातें सच साबित हुई हैं जिसमे कोई दोरह नहीं है.
चाणक्य के अनमोल विचार भी एक मात्र ऐसा साधन है जो आजके कलयुग मैं आपके लिए काफी लाभदायक होगा.
#1. निर्बल राजा को तत्काल संधि करनी चाहिए।
#2. पडोसी राज्यों से सन्धियां तथा पारस्परिक व्यवहार का आदान-प्रदान और संबंध विच्छेद आदि का निर्वाह मंत्रिमंडल करता है।
#3. निकट के राज्य स्वभाव से शत्रु हो जाते है।
#4. किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही शत्रु मित्र बनता है।
#5. ऋण, शत्रु और रोग को समाप्त कर देना चाहिए।
#6. वन की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते है।
#7. संकट में केवल बुद्धि ही काम आती है।
#8. लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।
#9. यदि माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।
#10. यदि स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।
#11. सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।
#12. एक बिगडैल गाय सौ कुत्तों से भी ज्यादा श्रेष्ठ है अर्थात एक विपरीत स्वभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते हैं|
#13. शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।
#14. सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
#15. एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।
#16. आपातकाल में स्नेह करने वाला व्यक्ति ही मित्र होता है।
#17. मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है। जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।
#18. कल के मोर से आज का कबूतर भला अर्थात संतोष सब से बड़ा धन है।
#19. विद्या ही निर्धन का धन है। विद्या को चोर भी चुरा नहीं सकता।
#20. शत्रुओं के गुणों को भी ग्रहण करना चाहिए।
#21. अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
#22. किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी भी किसी भी शत्रु का साथ न करें।
#23. आलसी का न वर्तमान है, और न ही भविष्य।
#24. चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते। पहले निश्चय करिए, फिर कार्य आरम्भ करिए।
#25. भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है। अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है। शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।
#26. आग में घी नहीं डालनी चाहिए अर्थात क्रोधी व्यक्ति को अधिक क्रोध नहीं दिलाना चाहिए।
#27. मनुष्य की वाणी ही विष और अमृत की खान है। दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी होती है।
#28. दूध के लिए हथिनी पालने की जरुरत नहीं होती अर्थात आवश्यकतानुसार साधन जुटाने चाहिए।
#29. कठिन समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए।
#30. सुख का आधार धर्म है। धर्म का आधार अर्थ अर्थात धन है। अर्थ का आधार राज्य है।
#31. वृद्धजन की सेवा ही विनय का आधार है। वृद्ध सेवा अर्थात ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।
#32. ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।
#33. विचार अथवा मंत्रणा को गुप्त न रखने पर कार्य नष्ट हो जाता है। लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।
#34. सभी मार्गों से मंत्रणा की रक्षा करनी चाहिए। मन्त्रणा की सम्पति से ही राज्य का विकास होता है।
#35. मंत्रणा की गोपनीयता को सर्वोत्तम माना गया है। भविष्य के अन्धकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।
#36. मंत्रणा के समय कर्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।
#37. आवाप अर्थात दूसरे राष्ट्र से संबंध नीति का परिपालन मंत्रिमंडल का कार्य है।
#38. दुर्बल के साथ संधि न करे। ठंडा लोहा लोहे से नहीं जुड़ता।
#39. संधि करने वालो में तेज़ ही संधि का हित होता है।
#40. शत्रु के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए।
#41. बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है।
#42. कच्चा पात्र कच्चे पात्र से टकराकर टूट जाता है।
#43. आत्म रक्षा से ही सबकी रक्षा होती है। आत्म सम्मान के हनन से विकास का विनाश हो जाता है।
#44. निर्बल राजा की आज्ञा की भी अवहेलना कदापि नहीं करनी चाहिए। अग्नि में दुर्बलता नहीं होती।
#45. दंडनीति से राजा की प्रवति अर्थात स्वभाव का पता चलता है। स्वभाव का मूल अर्थ लाभ होता है।
#46. अर्थ कार्य का आधार है। धन होने पर अल्प प्रयत्न करने से कार्य पूर्ण हो जाते है।
#47. उपाय से सभी कई कार्य पूर्ण हो जाते है। कोई भी कार्य कठिन नहीं होता।
#48. कार्य के मध्य में अति विलम्ब और आलस्य उचित नहीं है। कार्य-सिद्धि के लिए हस्त-कौशल का उपयोग करना चाहिए।
#49. भाग्य के विपरीत होने पर अच्छा कर्म भी दुखदायी हो जाता है। अशुभ कार्यों को नहीं करना चाहिए अर्थात गलत कार्यों को नहीं करना चाहिए|
#50. समय को समझने वाला कार्य सिद्ध करता है।
#51. समय का ज्ञान न रखने वाले राजा का कर्म समय के द्वारा ही नष्ट हो जाता है।
#52. परीक्षा करने से लक्ष्मी स्थिर रहती है।
#53. नीतिवान पुरुष कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व ही देश-काल की परीक्षा कर लेते है।
#54. अप्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार है। आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।
#55. कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए। राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनो का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।
#56. योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है। एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
#57. इन्द्रियों पर विजय का आधार विनर्मता है। प्रकृति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।
#58. आत्मविजयी सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।
#59. जहाँ लक्ष्मी है वहां स्वानी का (नध), वहां सरलता से सुख आ जाता है|
#60. बिना उपाय के किए गए कार्य प्रयत्न करने पर भी बचाए नहीं जा सकते, नष्ट हो जाते है।
#61. कार्य करने वाले के लिए उपाय सहायक होता है। कार्य का स्वरुप निर्धारित हो जाने के बाद वह कार्य लक्ष्य बन जाता है।
#62. अस्थिर मन वाले की सोच स्थिर नहीं रहती। सभी प्रकार की सम्पति का सभी उपायों से संग्रह करना चाहिए।
#63. बिना विचार किये कार्य करने वालों को भाग्यलक्ष्मी त्याग देती है।
#64. देश और फल का विचार करके कार्य आरम्भ करें।
#65. ज्ञान अर्थात अपने अनुभव और अनुमान के द्वारा कार्य की परीक्षा करें।
#66. उपायों को जानने वाला कठिन कार्यों को भी सरल बना लेता है।
#67. विश्वास की रक्षा प्राण से भी अधिक करनी चाहिए। चुगलखोर श्रोता के पुत्र और पत्नी उसे त्याग देते है।
#68. बच्चों की सार्थक बातें ग्रहण करनी चाहिए।
#69. साधारण दोष देखकर महान गुणों को त्याज्य नहीं समझना चाहिए।
#70. ज्ञानियों में भी दोष सुलभ है।
#71. मछवारा जल में प्रवेश करके ही कुछ पाता है।
#72. राजा अपने बल-विक्रम से धनी होता है।
#73. शत्रु भी उत्साही व्यक्ति के वश में हो जाता है।
#74. उत्साह हीन व्यक्ति का भाग्य भी अंधकारमय हो जाता है।
#75. अपनी कमजोरी का प्रकाशन न करें। एक अंग का दोष भी पुरुष को दुखी करता है।
#76. शत्रु हमेशा छिद्र (कमजोरी) पर ही प्रहार करते है। हाथ में आए शत्रु पर कभी विश्वास न करें।
#77. स्वजनों की बुरी आदतों का समाधान करना चाहिए। स्वजनों के अपमान से मनस्वी दुःखी होते है।
#78. सदाचार से शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है। विकृतिप्रिय लोग नीचता का व्यवहार करते है।
#79. नीच व्यक्ति को उपदेश देना ठीक नहीं। नीच लोगों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
#80. भली प्रकार से पूजने पर भी दुर्जन पीड़ा पहुंचाता है।
#81. कभी भी पुरुषार्थी का अपमान नहीं करना चाहिए।
#82. क्षमाशील पुरुष को कभी दुःखी न करें। क्षमा करने योग्य पुरुष को दुःखी न करें।
#83. स्वामी द्वारा एकांत में कहे गए गुप्त रहस्यों को मुर्ख व्यक्ति प्रकट कर देते हैं।
#84. अनुराग अर्थात प्रेम फल अथवा परिणाम से ज्ञात होता है।
#85. ज्ञान ऐश्वर्य का फल है। मुर्ख व्यक्ति दान देने में दुःख का अनुभव करता है।
#86. विवेकहीन व्यक्ति महान ऐश्वर्य पाने के बाद भी नष्ट हो जाते है।
#87. धैर्यवान व्यक्ति अपने धैर्ये से रोगों को भी जीत लेता है।
#88. गुणवान क्षुद्रता को त्याग देता है।
#89. कमजोर शरीर में बढ़ने वाले रोग की उपेक्षा न करें।
#90. शराबी के हाथ में थमें दूध को भी शराब ही समझा जाता है।
#91. मुर्ख का कोई मित्र नहीं है। धर्म के समान कोई मित्र नहीं है। धर्म ही लोक को धारण करता है।
#92. प्रेत भी धर्म-अधर्म का पालन करते है। दया धर्म की जन्मभूमि है।
#93. धर्म का आधार ही सत्य और दान है।
#94. मृत्यु भी धर्म पर चलने वाले व्यक्ति की रक्षा करती है। जहाँ पाप होता है, वहां धर्म का अपमान होता है।
#95. लोक-व्यवहार में कुशल व्यक्ति ही बुद्धिमान है।
#96. सज्जन को बुरा आचरण नहीं करना चाहिए।
#97. अधर्म बुद्धि से आत्मविनाश की सुचना मिलती है।
#98. विनाश का उपस्थित होना सहज प्रकृति से ही जाना जा सकता है।
#99. चुगलखोर व्यक्ति के सम्मुख कभी गोपनीय रहस्य न खोलें।
#100. राजा के सेवकों का कठोर होना अधर्म माना जाता है
#101. दूसरों की रहस्यमयी बातों को नहीं सुनना चाहिए।
#102. पराया व्यक्ति यदि हितैषी हो तो वह भाई है। उदासीन होकर शत्रु की उपेक्षा न करें।
#103. अल्प व्यसन भी दुःख देने वाला होता है।
#104. स्वयं को अमर मानकर धन का संग्रह करें। धनवान व्यक्ति का सारा संसार सम्मान करता है।
#105. धनविहीन महान राजा का संसार सम्मान नहीं करता। दरिद्र मनुष्य का जीवन मृत्यु के समान है।
#106. धनवान असुंदर व्यक्ति भी सुरुपवान कहलाता है। याचक कंजूस-से- कंजूस धनवान को भी नहीं छोड़ते।
#107. साधू पुरुष किसी के भी धन को अपना नहीं मानते है। दूसरे के धन अथवा वैभव का लालच नहीं करना चाहिए।
#108. मृत व्यक्ति का औषधि से क्या प्रयोजन। दूसरे के धन का लोभ नाश का कारण होता है।
#109. दूसरे का धन तिनकेभर भी नहीं चुराना चाहिए। दूसरों के धन का अपहरण करने से स्वयं अपने ही धन का नाश हो जाता है।
#110. चोर कर्म से बढ़कर कष्टदायक मृत्यु पाश भी नहीं है।
#111. जीवन के लिए सत्तू (जौ का भुना हुआ आटा) भी काफी होता है।
#112. हर पल अपने प्रभुत्व को बनाए रखना ही कर्तव्य है।
#113. निकम्मे और आलसी व्यक्ति को भूख का कष्ट झेलना पड़ता है।
#114. नीच की विधाएँ पाप कर्मों का ही आयोजन करती है।
#115. भूखा व्यक्ति अखाद्य को भी खा जाता है।
#116. इंद्रियों के अत्यधिक प्रयोग से बुढ़ापा आना शुरू हो जाता है।
#117. संपन्न और दयालु स्वामी की ही नौकरी करनी चाहिए।
#118. लोभी और कंजूस स्वामी से कुछ पाना जुगनू से आग प्राप्त करने के समान है।
#119. नीच और उत्तम कुल के बीच में विवाह संबंध नहीं होने चाहिए।
#120. उचित समय पर सम्भोग (sex) सुख न मिलने से स्त्री बूढी हो जाती है।
#121. न जाने योग्य जगहों पर जाने से आयु, यश और पुण्य क्षीण हो जाते है।
#122. अधिक मैथुन (सेक्स) से पुरुष बूढ़ा हो जाता है।
#123. अहंकार से बड़ा मनुष्य का कोई शत्रु नहीं।
#124. सभा के मध्य शत्रु पर क्रोध न करें।
#125. शत्रु की बुरी आदतों को सुनकर कानों को सुख मिलता है।
#126. धनहीन की बुद्धि दिखाई नहीं देती।
#127. व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
#128. शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे|
#129. स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।
#130. धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।
#131. राजा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए।
#132. व्यक्ति को उट-पटांग अथवा गवार वेशभूषा धारण नहीं करनी चाहिए।
#133. देवता के चरित्र का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
#134. जुंए में लिप्त रहने वाले के कार्य पूरे नहीं होते है।
#135. शिकारपरस्त राजा धर्म और अर्थ दोनों को नष्ट कर लेता है।
#136. शराबी व्यक्ति का कोई कार्य पूरा नहीं होता है। कामी पुरुष कोई कार्य नहीं कर सकता।
#137. दंड का भय न होने से लोग अकार्य करने लगते है। दण्डनीति से आत्मरक्षा की जा सकती है।
#138. भाग्य का शमन शांति से करना चाहिए। मनुष्य के कार्य में आई विपत्ती को कुशलता से ठीक करना चाहिए।
#139. कार्य की सिद्धि के लिए उदारता नहीं बरतनी चाहिए। दूध पीने के लिए गाय का बछड़ा अपनी माँ के थनों पर प्रहार करता है।
#140. मुर्ख लोगों का क्रोध उन्हीं का नाश करता है। सच्चे लोगो के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं।
#141. केवल साहस से कार्य-सिद्धि संभव नहीं। व्यसनी व्यक्ति लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही रुक जाता है।
#142. दूसरे के धन पर भेदभाव रखना स्वार्थ है। न्याय विपरीत पाया धन, धन नहीं है।
#143. दान ही धर्म है। न्याय ही धन है। जो धर्म और अर्थ की वृद्धि नहीं करता वह कामी है।
#144. सीधे और सरल व्यक्ति दुर्लभता से मिलते है। बहुत से गुणों को एक ही दोष ग्रस्त कर लेता है।
#145. चरित्र का उल्लंघन कदापि नहीं करना चाहिए। महात्मा को पराए बल पर साहस नहीं करना चाहिए।
#146. शत्रु द्वारा किया गया स्नेहपूर्ण व्यवहार भी दोषयुक्त समझना चाहिए।
#147. सज्जन की राय का उल्लंघन न करें। गुणी व्यक्ति का आश्रय लेने से निर्गुणी भी गुणी हो जाता है।
#148. दूध में मिला जल भी दूध बन जाता है। कार्य करते समय शत्रु का साथ नहीं करना चाहिए।
#149. आवश्यकतानुसार कम भोजन करना ही स्वास्थ्य प्रदान करता है।
#150. दुष्ट के साथ नहीं रहना चाहिए।
#151. रोग शत्रु से भी बड़ा है।
#152. सामर्थ्य के अनुसार ही दान दें।
#153. चालाक और लोभी बेकार में घनिष्ठता को बढ़ाते है।
#154. लोभ बुद्धि पर छा जाता है, अर्थात बुद्धि को नष्ट कर देता है।
#155. मूर्खों से विवाद नहीं करना चाहिए। मुर्ख से मूर्खों जैसी ही भाषा बोलें।
#156. उपार्जित धन का त्याग ही उसकी रक्षा है अर्थात उपार्जित धन को लोक हित के कार्यों में खर्च करके सुरक्षित कर लेना चाहिए।
#157. अकुलीन धनिक भी कुलीन से श्रेष्ठ है। नीच व्यक्ति को अपमान का भय नहीं होता।
#158. कर्म करने वाले को मृत्यु का भय नहीं सताता। विशेषज्ञ व्यक्ति को स्वामी का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
#159. निर्धन व्यक्ति की पत्नी भी उसकी बात नहीं मानती।
#160. निर्धन व्यक्ति की हितकारी बातों को भी कोई नहीं सुनता।
#161. पुष्पहीन होने पर सदा साथ रहने वाला भौरा वृक्ष को त्याग देता है।
#162. विद्या से विद्वान की ख्याति होती है।
#163. यश शरीर को नष्ट नहीं करता।
#164. जो दूसरों की भलाई के लिए समर्पित है, वही सच्चा पुरुष है।
#165. शास्त्रों के ज्ञान से इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है।
#166. नीच व्यक्ति की शिक्षा की अवहेलना करनी चाहिए।
#167. मलिछ अर्थात नीच की भाषा कभी शिक्षा नहीं देती।
#168. गलत कार्यों में लगने वाले व्यक्ति को शास्त्रज्ञान ही रोक पाते है।
#169. मलिछ अर्थात नीच व्यक्ति की भी यदि कोई अच्छी बात हो तो अपना लेना चाहिए।
#170. गुणों से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। विष में यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।
#171. विशेष स्थिति में ही पुरुष सम्मान पाता है। सदैव आर्यों (श्रेष्ठ जन) के समान ही आचरण करना चाहिए।
#172. मर्यादा का कभी उल्लंघन न करें। विद्वान और प्रबुद्ध व्यक्ति समाज के रत्न है।
#173. परिचय हो जाने के बाद दोष नहीं छिपाते। स्वयं अशुद्ध व्यक्ति दूसरे से भी अशुद्धता की शंका करता है।
#174. अपराध के अनुरूप ही दंड दें। कथन के अनुसार ही उत्तर दें।
#175. वैभव के अनुरूप ही आभूषण और वस्त्र धारण करें। अपने कुल अर्थात वंश के अनुसार ही व्यवहार करें। उम्र के अनुरूप ही वेश धारण करें।
#176. सेवक को स्वामी के अनुकूल कार्य करने चाहिए। पति के वश में रहने वाली पत्नी ही व्यवहार के अनुकूल होती है।
#177. कार्य के अनुरूप प्रयत्न करें। पात्र के अनुरूप दान दें।
#178. शिष्य को गुरु के वश में होकर कार्य करना चाहिए। पुत्र को पिता के अनुकूल आचरण करना चाहिए।
#179. अत्यधिक आदर-सत्कार से शंका उत्पन्न हो जाती है। स्वामी के क्रोधित होने पर स्वामी के अनुरूप ही काम करें।
#180. माता द्वारा प्रताड़ित बालक माता के पास जाकर ही रोता है। स्नेह करने वालों का रोष अल्प समय के लिए होता है।
#181. मुर्ख व्यक्ति को अपने दोष दिखाई नहीं देते, उसे दूसरे के दोष ही दिखाई देते हैं।
#182. स्वार्थ पूर्ति हेतु दी जाने वाली भेंट ही उनकी सेवा है।
#183. बहुत दिनों से परिचित व्यक्ति की अत्यधिक सेवा शंका उत्पन्न करती है।
#184. अति आसक्ति दोष उत्पन्न करती है। शांत व्यक्ति सबको अपना बना लेता है।
#185. बुरे व्यक्ति पर क्रोध करने से पूर्व अपने आप पर ही क्रोध करना चाहिए।
#186. बुद्धिमान व्यक्ति को मुर्ख, मित्र, गुरु और अपने प्रियजनों से विवाद नहीं करना चाहिए।
#187. ऐश्वर्य पैशाचिकता से अलग नहीं होता। स्त्री में गंभीरता न होकर चंचलता होती है।
#188. धनिक को शुभ कर्म करने में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता। वाहनों पर यात्रा करने वाले पैदल चलने का कष्ट नहीं करते।
#189. जो व्यक्ति जिस कार्य में कुशल हो, उसे उसी कार्य में लगाना चाहिए।
#190. स्त्री का निरिक्षण करने में आलस्य न करें। स्त्री पर जरा भी विश्वास न करें। स्त्री बिना लोहे की बड़ी है। स्त्री का आभूषण लज्जा है।
#191. ब्राह्मणों का आभूषण वेद है। सभी व्यक्तियों का आभूषण धर्म है। विनय से युक्त विद्या सभी आभूषणों की आभूषण है।
#192. शांतिपूर्ण देश में ही रहें। जहां सज्जन रहते हों, वहीं बसें। राजा की आज्ञा से सदैव डरते रहे।
#193. राजा से बड़ा कोई देवता नहीं। राज अग्नि दूर तक जला देती है। राजा के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए।
#194. गुरु और देवता के पास भी खाली नहीं जाना चाहिए। राजपरिवार से द्वेष अथवा भेदभाव नहीं रखना चाहिए।
#195. राजकुल में सदैव आते-जाते रहना चाहिए। राजपुरुषों से संबंध बनाए रखें।
#196. राजदासी से कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए। राजधन की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना चाहिए।
#197. पुत्र के गुणवान होने से परिवार स्वर्ग बन जाता है। पुत्र को सभी विद्याओं में क्रियाशील बनाना चाहिए।
#198. जनपद के लिए ग्राम का त्याग कर देना चाहिए| ग्राम के लिए कुटुम्ब (परिवार) को त्याग देना चाहिए।
#199. पुत्र प्राप्ति सर्वश्रेष्ठ लाभ है। प्रायः पुत्र पिता का ही अनुगमन करता है।
#200. गुणी पुत्र माता-पिता की दुर्गति नहीं होने देता। पुत्र से ही कुल को यश मिलता है। जिससे कुल का गौरव बढे वही पुरुष है।
#201. पुत्र के बिना स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। संतान को जन्म देने वाली स्त्री पत्नी कहलाती है।
#202. एक ही गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं का निकट संपर्क ब्रह्मचर्य को नष्ट कर सकता है।
#203. पुत्र प्राप्ति के लिए ही स्त्री का वरण किया जाता है। पराए खेत में बीज न डाले अर्थात पराई स्त्री से सम्भोग (सेक्स) न करें।
#204. अपनी दासी को ग्रहण करना स्वयं को दास बना लेना है। विनाश काल आने पर दवा की बात कोई नहीं सुनता।
#205. देहधारी को सुख-दुःख की कोई कमी नहीं रहती।
#चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को शिक्षा- चन्द्रगुप्त को दिया गया ज्ञान
#206. गाय के पीछे चलते बछड़े के समान सुख-दुःख भी आदमी के साथ जीवन भर चलते है।
#207. दुष्ट व्यक्ति पर उपकार नहीं करना चाहिए। सज्जन तिल बराबर उपकार को भी पर्वत के समान बड़ा मानकर चलता है।
#208. उपकार का बदला चुकाने के भय से दुष्ट व्यक्ति शत्रु बन जाता है।
#209. सज्जन थोड़े-से उपकार के बदले बड़ा उपकार करने की इच्छा से सोता भी नहीं।
#210. देवता का कभी अपमान न करें। आंखों के समान कोई ज्योति नहीं। आंखें ही देहधारियों की नेता है। आँखों के बिना शरीर क्या है?
#211. जल में मूत्र त्याग नहीं करना चाहीए| नग्न होकर जल में प्रवेश न करें।
#212. जैसा शरीर होता है वैसा ही ज्ञान होता है। जैसी बुद्धि होती है, वैसा ही वैभव होता है।
#213. स्त्री के बंधन से मोक्ष पाना अति दुर्लभ है। सभी अशुभों का क्षेत्र स्त्री है। स्त्रियों का मन क्षणिक रूप से स्थिर होता है।
#214. तपस्वियों को सदैव पूजा करने योग्य मानना चाहिए। पराई स्त्री के पास नहीं जाना चाहिए।
#215. अन्न दान करने से भ्रूण हत्या (गर्भपात) के पाप से मुक्ति मिल जाती है। वेद से बाहर कोई धर्म नहीं है।
#216. धर्म का विरोध कभी न करें। सत वाणी से स्वर्ग प्राप्त होता है। सत्य से बढ़कर कोई तप नहीं। सत्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। सत्य पर संसार टिका हुआ है। सत्य पर ही देवताओं का आशीर्वाद बरसता है।
#217. गुरुओं की आलोचना न करें। दुष्टता नहीं अपनानी चाहिए। झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं।
#218. दुष्ट व्यक्ति का कोई मित्र नहीं होता।
चाणक्य की शिक्षा- चाणक्य ने क्या-क्या कहा था ?
#219. संसार में निर्धन व्यक्ति का आना उसे दुखी करता है। दानवीर ही सबसे बड़ा वीर है।
#220. गुरु, देवता और ब्राह्मण में भक्ति ही भूषण है। विनय सबका आभूषण है।
#221. विनाशकाल आने पर आदमी अनीति करने लगता है। दान जैसा कोई वशीकरण मन्त्र नहीं है।
#222. पराई वस्तु को पाने की लालसा नहीं रखनी चाहिए।
#223. दुर्जन व्यक्तियों द्वारा संगृहीत सम्पति का उपभोग दुर्जन ही करते है
#224. नीम का फल कौए ही खाते है। समुद्र के पानी से प्यास नहीं बुझती।
#225. जो सुख मिला है, उसे न छोड़े। मनुष्य स्वयं ही दुःखों को बुलाता है।
#226. लोक व्यवहार शास्त्रों के अनुकूल होना चाहिए। रात्रि में नहीं घूमना चाहिए।
#227. आधी रात तक जागते नहीं रहना चाहिए। बिना अधिकार के किसी के घर में प्रवेश न करें। पराए धन को छीनना अपराध है।
#228. अकारण किसी के घर में प्रवेश न करें। संसार में लोग जान-बूझकर अपराध की ओर बढ़ते हैं|
#229. शास्त्रों के न जानने पर श्रेष्ठ पुरुषों के आचरणों के अनुसार आचरण करें। शास्त्र शिष्टाचार से बड़ा नहीं है।
#230. राजा अपने गुप्तचरों द्वारा अपने राज्य में होने वाली दूर की घटनाओ को भी जान लेता है।
#231. साधारण पुरुष परम्परा का अनुसरण करते है। जिसके द्वारा जीवनयापन होता है, उसकी निंदा न करें।
#232. इन्द्रियों को वश में करना ही तप का सार है। स्त्री के बंधन से छूटना अथवा मोक्ष पाना अत्यंत कठिन है।
#233. स्त्री का नाम सभी अशुभ क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। अशुभ कार्य न चाहने वाले स्त्रियों में आसक्त नहीं होते।
#234. तीन वेदों ऋग, यजु व साम को जानने वाला ही यज्ञ के फल को जानता है।
#235. जब तक पुण्य फलों का अंश शेष रहता है, तभी तक स्वर्ग का सुख भोग जा सकता है।
#236. स्वर्ग-पतन से बड़ा कोई दुःख नहीं है। प्राणी अपनी देह को त्यागकर इंद्र का पद भी प्राप्त करना नहीं चाहता।
#237. समस्त दुखों को नष्ट करने की औषधि मोक्ष है। दुर्वचनों से कुल का नाश हो जाता है।
#238. पुत्र के सुख से बढ़कर कोई दूसरा सुख नहीं है। विवाद के समय धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिए।
#239. प्रातःकाल ही दिन-भर के कार्यों के बारें में विचार कर लें।
#240. जिस प्रकार बालू अपने रूखे स्वभाव नहीं छोड़ सकता, उसी प्रकार दुष्ट भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ पाता।
#241. सज्जन दुर्जनों में विचरण नही करते।
#242. हंस पक्षी श्मशान में नहीं रहता अर्थात ज्ञानी व्यक्ति मुर्ख और दुष्ट व्यक्तियों के पास बैठना पसंद नहीं करते।
#243. समस्त संसार धन के पीछे लगा है। यह संसार आशा के सहारे बंधा है।
#244. केवल आशा के सहारे ही लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती। आशा के साथ धैर्य नहीं होता। निर्धन होकर जीने से तो मर जाना अच्छा है।
#245. आशा लज्जा को दूर कर देती है अर्थात मनुष्य को निर्लज बना देती है। आत्मस्तुति अर्थात अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से नहीं करनी चाहिए।
#246. दिन में स्वप्न नहीं देखने चाहिए। दिन में सोने से आयु कम होती है।
#247. धन के नशे में अंधा व्यक्ति हितकारी बातें नहीं सुनता और न अपने निकट किसी को देखता है।
#248. श्रेष्ठ स्त्री के लिए पति ही परमेश्वर है। पति का अनुगमन करना, इहलोक और परलोक दोनों का सुख प्राप्त करना है।
#249. घर आए अतिथि का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। नित्य दूसरे को समभागी बनाए। दिया गया दान कभी नष्ट नहीं होता।
#250. आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें, वह सदा दुःख ही देता है।
#251. भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है। अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।
#252. सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है|
चाणक्य की सीख – चाणक्य की कही अनगिनत बातें और आचार्य चाणक्य के अनमोल विचार
#253. सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
#254. सत्य भी यदि अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए। समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में भ्रम में रहता है।
#255. जो जिस कार्य में कुशल हो उसे उसी कार्य में लगना चाहिए। दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है किसी भी कार्य में पल भर का भी विलम्ब न करें|
#256. स्वर्ग की प्राप्ति शाश्वत अर्थात सनातन नहीं होती। किसी कार्यारंभ के समय को विद्वान और अनुभवी लोगों से पूछना चाहिए।
#257. कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।
#258. अपने से अधिक शक्तिशाली और समान बल वाले से शत्रुता न करे।
#259. मंत्रणा को गुप्त रखने से ही कार्य सिद्ध होता है। योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
#260. एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
#261. अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है। जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।
#262. कल की हज़ार कौड़ियों से आज की एक कौड़ी भली अर्थात संतोष सबसे बड़ा धन है।
#263. दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।
#264. कल का कार्य आज ही कर ले।
चाणक्य की अचूक बातें जो जीवन बदल कर रख दें
#265. राज्य का आधार अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना है।
#266. प्रकृति (सहज) रूप से प्रजा के संपन्न होने से नेताविहीन राज्य भी संचालित होता रहता है।
#267. समस्त कार्य पूर्व मंत्रणा से करने चाहिए। छः कानो में पड़ने से (तीसरे व्यक्ति को पता पड़ने से) मंत्रणा का भेद खुल जाता है।
#268. आलसी राजा प्राप्त वास्तु की रक्षा करने में असमर्थ होता है। आलसी राजा अपने विवेक की रक्षा नहीं कर सकता| आलसी राजा की प्रशंसा उसके सेवक भी नहीं करते।
#269. शक्तिशाली राजा लाभ को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। राज्यतंत्र को ही नीतिशास्त्र कहते है।
#270. राज्यतंत्र से संबंधित घरेलु और बाह्य, दोनों कर्तव्यों को राजतंत्र का अंग कहा जाता है|
#271. राज्य नीति का संबंध केवल अपने राज्य को सम्रद्धि प्रदान करने वाले मामलो से होता है|
#272. राज्य को नीतिशास्त्र के अनुसार चलना चाहिए। संधि और एकता होने पर भी सतर्क रहे।
#273. शत्रुओं से अपने राज्य की पूर्ण रक्षा करें। शक्तिहीन को बलवान का आश्रय लेना चाहिए। दुर्बल के आश्रय से दुःख ही होता है।
#274. अग्नि के समान तेजस्वी जानकर ही किसी का सहारा लेना चाहिए।
#275. ईर्ष्या करने वाले दो समान व्यक्तियों में विरोध पैदा कर देना चाहिए।
#276. चतुरंगणी सेना (हाथी, घोड़े, रथ और पैदल) होने पर भी इन्द्रियों के वश में रहने वाला राजा नष्ट हो जाता है।
#277. पूर्वाग्रह से ग्रसित दंड देना लोकनिंदा का कारण बनता है।
#278. धन का लालची श्रीविहीन हो जाता है|
#279. दण्डनीति के उचित प्रयोग से ही प्रजा की रक्षा संभव है।
#280. दंड से सम्पदा का आयोजन होता है। दण्डनीति के प्रभावी न होने से मंत्रीगण भी बेलगाम होकर अप्रभावी हो जाते है।
#281. दंड का निर्धारण विवेक सम्मत होना चाहिए। सिद्ध हुए कार्य का प्रकाशन करना ही उचित कर्तव्य होना चाहिए।
#282. संयोग से तो एक कीड़ा भी स्तिथि में परिवर्तन कर देता है।
#283. अज्ञानी व्यक्ति के कार्य को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए।
#284. ज्ञानियों के कार्य भी भाग्य तथा मनुष्यों के दोष से दूषित हो जाते है। मुर्ख लोग कार्यों के मध्य कठिनाई उत्पन्न होने पर दोष ही निकाला करते है।
#285. जिन्हें भाग्य पर विश्वास नहीं होता, उनके कार्य पुरे नहीं होते। प्रयत्न न करने से कार्य में विघ्न पड़ता है।
#286. जो अपने कर्तव्यों से बचते है, वे अपने आश्रितों परिजनों का भरण-पोषण नहीं कर पाते। जो अपने कर्म को नहीं पहचानता, वह अँधा है।
#287. प्रत्यक्ष और परोक्ष साधनों के अनुमान से कार्य की परीक्षा करें। निम्न अनुष्ठानों (भूमि, धन-व्यापार उधोग-धंधों) से आय के साधन भी बढ़ते है।
#288. विचार न करके कार्य करने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी त्याग देती है। परीक्षा किये बिना कार्य करने से कार्य विपत्ति में पड़ जाता है।
#289. परीक्षा करके विपत्ति को दूर करना चाहिए। अपनी शक्ति को जानकार ही कार्य करें। स्वजनों को तृप्त करके शेष भोजन से जो अपनी भूख शांत करता है, वह अमृत भोजी कहलाता है।
#290. कायर व्यक्ति को कार्य की चिंता नहीं होती। अपने स्वामी के स्वभाव को जानकार ही आश्रित कर्मचारी कार्य करते है।
#291. गाय के स्वभाव को जानने वाला ही दूध का उपभोग करता है। नीच व्यक्ति के सम्मुख रहस्य और अपने दिल की बात नहीं करनी चाहिए।
#292. कोमल स्वभाव वाला व्यक्ति अपने आश्रितों से भी अपमानित होता है।
#293. कठोर दंड से सभी लोग घृणा करते है। राजा योग्य अर्थात उचित दंड देने वाला हो।
#294. अगम्भीर विद्वान को संसार में सम्मान नहीं मिलता। महाजन द्वारा अधिक धन संग्रह प्रजा को दुःख पहुँचाता है।
#295. अत्यधिक भार उठाने वाला व्यक्ति जल्दी थक जाता है।
#296. सभा के मध्य जो दूसरों के व्यक्तिगत दोष दिखाता है, वह स्वयं अपने दोष दिखाता है|
#297. असंशय की स्तिथि में विनाश से अच्छा तो संशय की स्तिथि में हुआ विनाश होता है।
#298. अज्ञानी लोगों द्वारा प्रचारित बातों पर चलने से जीवन व्यर्थ हो जाता है।
#299. धर्मार्थ विरोधी कार्य करने वाला अशांति उत्पन्न करता है।
#300. निकृष्ट उपायों से प्राप्त धन की अवहेलना करने वाला व्यक्ति ही साधू होता है।
#301. रत्न कभी खंडित नहीं होता अर्थात विद्वान व्यक्ति में कोई साधारण दोष होने पर उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए।
#302. मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
#303. मृतिका पिंड (मिट्टी का ढेला) भी फूलों की सुगंध बढ़ा देता है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवशय पड़ता है जैसे जिस मिटटी में फूल खिलते है उस मिट्टी से भी फूलों की सुगंध आने लगती है।
#304. मुर्ख व्यक्ति उपकार करने वाले का भी अपकार करता है। इसके विपरीत जो इसके विरुद्ध आचरण करता है, वह विद्वान कहलाता है।
#305. पाप कर्म करने वाले को क्रोध और भय की चिंता नहीं होती।
#306. अविश्वसनीय लोगों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
#307. विष प्रत्येक स्तिथि में विष ही रहता है। राजा की भलाई के लिए ही नीच का साथ करना चाहिए।
#308. संबंधों का आधार उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है।
#चाणक्य ने स्त्री विषय में जो जो कहा
#309. कुशल लोगों को रोजगार का भय नहीं होता। जितेन्द्रिय व्यक्ति को विषय-वासनाओं का भय नहीं सताता।
#310. स्त्री रत्न से बढ़कर कोई दूसरा रत्न नहीं है। रत्नों की प्राप्ति बहुत कठिन है। अर्थात श्रेष्ठ नर और नारियों की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है।
#311. शास्त्र का ज्ञान आलसी को नहीं हो सकता।
#312. स्त्री के प्रति आसक्त रहने वाले पुरुष को न स्वर्ग मिलता है, न धर्म-कर्म।
#313. स्त्री भी नपुंसक व्यक्ति का अपमान कर देती है। फूलों की इच्छा रखने वाला सूखे पेड़ को नहीं सींचता।
#314. बिना प्रयत्न किए धन प्राप्ति की इच्छा करना बालू में से तेल निकालने के समान है|
#315. महान व्यक्तियों का उपहास नहीं करना चाहिए| कार्य के लक्षण ही सफलता-असफलता के संकेत दे देते है।
#316. नक्षत्रों द्वारा भी किसी कार्य के होने, न होने का पता चल जाता है।
#317. अपने कार्य की शीघ्र सिद्धि चाहने वाला व्यक्ति नक्षत्रों की परीक्षा नहीं करता।
#318. सौंदर्य अलंकारों अर्थात आभूषणों से छिप जाता है। गुरुजनों की माता का स्थान सर्वोच्च होता है।
#319. प्रत्येक अवस्था में सर्वप्रथम माता का भरण-पोषण करना चाहिए।
#320. जो कुलीन न होकर भी विनीत है, वह श्रेष्ठ कुलीनों से भी बढ़कर है। याचकों का अपमान अथवा उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
#321. मधुर व प्रिय वचन होने पर भी अहितकर वचन नहीं बोलने चाहिए| बहुमत का विरोध करने वाले एक व्यक्ति का अनुगमन नहीं करना चाहिए।
#322. दुर्जन व्यक्ति के साथ अपने भाग्य को नहीं जोड़ना चाहिए। सदाचार से मनुष्य का यश और आयु दोनों बढ़ती है।
#323. अपने व्यवसाय में सफल नीच व्यक्ति को भी साझीदार नहीं बनाना चाहिए।
#324. पुरुष के लिए कल्याण का मार्ग अपनाना ही उसके लिए जीवन-शक्ति है।
#325. कठिन कार्य करवा लेने के उपरान्त भी नीच व्यक्ति कार्य करवाने वाले का अपमान ही करता है।
#326. कृतघ्न अर्थात उपकार न मानने वाले व्यक्ति को नरक ही प्राप्त होता है।
#327. उन्नति और अवनति वाणी के अधीन है।
#328. अपने धर्म के लिए ही कोई सत्पुरुष कहलाता है।
#329. स्तुति करने से देवता भी प्रसन्न हो जाते है।
#330. झूठे अथवा दुर्वचन लम्बे समय तक स्मरण रहते है।
#331. जिन वचनो से राजा के प्रति द्वेष उत्पन्न होता हो, ऐसे बोल नहीं बोलने चाहिए। कोयल की कुक सबको अच्छी है। प्रिय वचन बोलने वाले का कोई शत्रु नहीं होता।
#332. जो मांगता है, उसका कोई गौरव नहीं होता।
#333. सौभाग्य ही स्त्री का आभूषण है।
#334. शत्रु की जीविका भी नष्ट नहीं करनी चाहिए।
#335. बहुत पुराना नीम का पेड़ होने पर भी उससे सरौता नहीं बन सकता।
#336. एरण्ड वृक्ष का सहारा लेकर हाथी को अप्रसन्न न करें।
#चाणक्य की शिक्षा और चाणक्य की कुशलता – आचार्य चाणक्य के अनमोल विचार
#337. पुराना होने पर भी शाल के वृक्ष से हाथी को नहीं बाँधा जा सकता। बहुत बड़ा कनेर का वृक्ष भी मूसली बनाने के काम नहीं आता।
#338. जुगनू कितना भी चमकीला हो, पर उससे आग का काम नहीं लिया जा सकता।
#339. समृद्धता से कोई गुणवान नहीं हो जाता।
#340. बिना प्रयत्न के जहां जल उपलब्ध हो, वही कृषि करनी चाहिए। जैसा बीज होता है, वैसा ही फल होता है। जैसी शिक्षा, वैसी बुद्धि। जैसा कुल, वैसा आचरण।
#341. शुद्ध किया हुआ नीम भी आम नहीं बन सकता।
#342. लोभ द्वारा शत्रु को भी भ्रष्ट किया जा सकता है।
#343. मृगतृष्णा जल के समान है।
#344. विनयरहित व्यक्ति का ताना देना व्यर्थ है।
#345. बुद्धिहीन व्यक्ति निकृष्ट साहित्य के प्रति मोहित होते है।
#346. सत्संग से स्वर्ग में रहने का सुख मिलता है।
#347. श्रेष्ठ व्यक्ति अपने समान ही दूसरों को मानता है।
#348. रूप के अनुसार ही गुण होते है।
#349. जहां सुख से रहा जा सके, वही स्थान श्रेष्ठ है।
#350. विश्वासघाती की कहीं भी मुक्ति नहीं होती।
#351. पापी की आत्मा उसके पापों को प्रकट कर देती है।
#352. प्रजाप्रिय राजा लोक-परलोक का सुख प्रकट करता है।
#353. मनुष्य के चेहरे पर आए भावों को देवता भी छिपाने में अशक्त होते है।
#354. चोर और राजकर्मचारियों से धन की रक्षा करनी चाहिए।
#355. राजा के दर्शन न देने से प्रजा नष्ट हो जाती है।राजा के दर्शन देने से प्रजा सुखी होती है।
#356. अहिंसा धर्म का लक्षण है। संसार की प्रत्येक वास्तु नाशवान है।
#357. भले लोग दूसरों के शरीर को भी अपना ही शरीर मानते है।
#358. मांस खाना सभी के लिए अनुचित है।
#359. व्यक्ति के मन में क्या है, यह उसके व्यवहार से प्रकट हो जाता है। ज्ञानी पुरुषों को संसार का भय नहीं होता।
#360. कीड़ों तथा मलमूत्र का घर यह शरीर पुण्य और पाप को भी जन्म देता है।
#361. धार्मिक अनुष्ठानों में स्वामी को ही श्रेय देना चाहिए।
#362. राजा की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे।
#363. अपनी सेवा से स्वामी की कृपा पाना सेवकों का धर्म है।
#364. जैसी आज्ञा हो वैसा ही करें।
#365. विशेष कार्य को (बिना आज्ञा भी) करें।
#366. राजसेवा में डरपोक और निकम्मे लोगों का कोई उपयोग नहीं होता।
#367. अपने तथा अन्य लोगों के बिगड़े कार्यों का स्वयं निरिक्षण करना चाहिए।
#368. यदि न खाने योग्य भोजन से पेट में बदहजमी हो जाए तो ऐसा भोजन कभी नहीं करना चाहिए।
#369. खाने योग्य भी अपथ्य होने पर नहीं खाना चाहिए।
#370. जब कार्यों की अधिकता हो, तब उस कार्य को पहले करें, जिससे अधिक फल प्राप्त होता है।
#371. अजीर्ण की स्थिति में भोजन दुःख पहुंचाता है।
#372. जन्म-मरण में दुःख ही है।
#373. धर्म को व्यावहारिक होना चाहिए। लोक चरित्र को समझना सर्वज्ञता कहलाती है।
#374. तत्वों का ज्ञान ही शास्त्र का प्रयोजन है।
#375. कर्म करने से ही तत्वज्ञान को समझा जा सकता है।
#376. धर्म से भी बड़ा व्यवहार है। आत्मा व्यवहार की साक्षी है,आत्मा तो सभी की साक्षी है। कूट साक्षी नहीं होना चाहिए।
#377. झूठी गवाही देने वाला नरक में जाता है।
#378. नीच लोगों की कृपा पर निर्भर होना व्यर्थ है।
#379. बुद्धिमानों के शत्रु नहीं होते। शत्रु की निंदा सभा के मध्य नहीं करनी चाहिए।
#380. क्षमाशील व्यक्ति का तप बढ़ता रहता है।
#381. बल प्रयोग के स्थान पर क्षमा करना अधिक प्रशंसनीय होता है।
#382. क्षमा करने वाला अपने सारे काम आसानी से कर लेता है।
#383. साहसी लोगों को अपना कर्तव्य प्रिय होता है। दोपहर बाद के कार्य को सुबह ही कर लें।
#384. दैव (भाग्य) के अधीन किसी बात पर विचार न करें।
#385. श्रेष्ठ और सुहृदय जन अपने आश्रित के दुःख को अपना ही दुःख समझते है।
#386. नीच व्यक्ति ह्र्दयगत बात को छिपाकर कुछ और ही बात कहता है।
#387. बुद्धिहीन व्यक्ति पिशाच अर्थात दुष्ट के सिवाय कुछ नहीं है।
#388. असहाय पथिक बनकर मार्ग में न जाएं।
#389. पुत्र की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
# चाणक्य ने क्या क्या सिखाया चन्द्रगुप्त को #
#390. सेवकों को अपने स्वामी का गुणगान करना चाहिए।
#391. शत्रु का पुत्र यदि मित्र है तो उसकी रक्षा करनी चाहिए।
#392. शत्रु के छिद्र (दुर्बलता) पर ही प्रहार करना चाहिए।
#393. सुख और दुःख में समान रूप से सहायक होना चाहिए।
#394. स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों को सम्मुख रखकर दोबारा उन पर विचार करे।
#395. अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी अपनी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
#396. ज्ञानी और छल-कपट से रहित शुद्ध मन वाले व्यक्ति को ही मंत्री बनाए।
#397. शासक को स्वयं योग्य बनकर योग्य प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
#398. ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है अर्थात कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है।
#399. जब खीर गर्म हो तो पतीले में खीर किनारे से थोड़ी थोड़ी खानी चाहिए|
#400. पुरुष को कोई भी कार्य बिना सोचे समझे नहीं करना चाहिए ये उसे बर्बाद कर सकता है|
चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बहुत सारी बातें बताई है चाणक्य के विचार चन्द्रगुप्त को भी कठिन परिस्थितियों से निकाल ले गए तो हम आप क्या हैं| हम आप भी कुछ न कुछ कर सकते है| चाणक्य के अनमोल विचारों को चाणक्य की नीति को अपने जीवन में उतार कर.
ये थी चाणक्य की कही हुई बातें चाणक्य के अनमोल विचार और चाणक्य की नीति…! यदि आपको चाणक्य की नीति पढ़कर अच्छा लगा हो तो इस लेख को फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प आदि में शेयर करना न भूलें ”धन्यवाद”.
अनमोल विचार ⇓
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very nice quotes sir
very nice kaash ye baate 10 saal pahle pata hoti mujhe.....
Interesting quotes
best thoughts by Chanakya and thankyou for all the thoughts to provide us ..
chanakya motivated me a lot from his quotes
Thanks for this knowledgable quotes
Very good info
Very Nice Post Sir Ji Thanks
आपने अपनी जानकारी को बहुत ही उम्दा तरीके से विस्तृत किया है, आपके द्वारा दी गयी जानकारी मुझे बहुत अच्छी तरह से समझ में आये इसके लिए आपका धन्यवाद